Thursday, August 6, 2009

प्रवचनों को आत्मसाथ नहीं कर पाती है वर्तमान पीढ़ी

अमरेश्वरी चरण सिन्हा
दरभंगा। भारत में सभी धर्मॊ कॆ विचारकॊ ने स्वयं में चरित्र निर्माण कॊ महत्वपूर्ण बताते हुए प्रयास करनॆ का मार्ग प्रशास्त किया। इस काम कॆ लिए ऐसे महात्माओं ने पहले अपने कॊ शुदि से युक्त किया। ऐसे लोगों में कुछ तो ऐसे भी हुए जिन्होंने आत्म-शुदि कॆ बाद भी अपने कॊ गौण ही रखा। ऐसे ही धर्मात्मा और तपस्वी थे हमदुन कस्सार नेशापुरी। उनकी ख्याति चारों ओर फॆली थी। परन्तु वे समर्पण भाव से खुदा की बंदगी करते हुए समय व्यतीत करने में ही अपना कर्त्तव्य समझते थे। एक बार इलाकॆ कॆ कुछ लोग उनकॆ पास आये और उनसे दरखास्त की ÷हजरत आप मजलिस में आ कर लोगों कॊ कुछ नसीहत करते तो बुतों कॊ लाभ मिलेगा।' हजरत हमदुत ने नम्रतापूर्ववफ कहा- ÷मे भाईयों, उपदेश देने की योग्यता अभी मुझमें नहीं है। क्योंकि मैं दुनिया कॆ मानसम्मान तथा लोक-प्रतिषठा कॆ मोह से मुक्त हुआ नहीं। इस कारण मेरा उपदेश कितने भी अच्छे हो, परन्तु वह लोगों कॆ दिलों में नहीं उतरेगा। जो उपदेश वचन दिलों में गह उत नहीं और मनुष्य कॆ जीवन में परिवर्त्तन न करें ऐसे वचनों कॊ बोलना ज्ञान का उपहास करना है और यह कर्म र्ध्म कॊ हानि पहुंचाने जैसा हो जाता है।' उन्होंने यह भी कहा की मौन रख कर र्ध्म-कार्य करने हम जाये, इसकॆ जैसी लाभकारी बात दूसरी कॊई नहीं है। जो लोग सचमुच र्ध्मपरायण होते हैं उन्हीं का उपदेश सुननेवालों कॆ लिए लाभकारी होता है। जो मनुष्य खुद कॊ ही धर्माचरण बनाने कॆ लिए प्रयासरत रह कर अपना समय बिता रहा हो और अपना चरित्रय सुधर न कर सका हो, उसे चाहिए की वह तब तक र्ध्म की बातों कॊ मन में दृढ़ता से अंकीत करते रहे। जब तका वह स्वयं को सुधार न ले। उसे उपदेशवफ नहीं बनने का अधिकार है जो ऐसा नहीं कर पाया हो। मतात्मा ने कहा ÷बोलने वाले और सुनने वाले दोनों कॆ लिए यही तरीका फायदेमंद हैं।' आज हमें सोचना होगा कि देश और आज की पीढ़ी को हम क्या दे पा रहे हैं। यह सोंचना राष्ट्रद्रोह और कर्त्तव्यच्युत हमें करॆगा जब हम यह कहें कि देश या समाज ने हमें क्या दिया। यह वर्त्तमान समय की सबसे बढी मांग है। आज कॆ समय में सिर्फ् अपनी बातों कॊ मनवाने की होड़ लगी है। सबसे बड़ी विंढ्बना है कि आज देश में मीडिया कॆ माध्यम से अनेक लोग प्रवचन करते नजर आते है, परन्तु उनकॆ द्वारा दिया गया प्रवचन एक आयोजन में पहुंचे भी कॆ कानों तक अवश्य पहुंचता है, परन्तु हृदय तक उसका असर कितना हो पाता यह कह पाना मुश्विकल है। उसी प्रकार देश कॆ मार्गदर्शको की बातों और बताये कार्यक्रमों कॊ हम कॊल्ड-स्टोरॆज से सिर्फ समारोह स्थलों पर निकालते हैं और फिर उसे वहीं ले जाकर बंद कर देते हैं। यह विश्व कॆ पैमाने पर हमारे लिए क्षोभा की बात होगी। क्योंकि प्रकृति से जोड़ कार हमारी साध्ना पौराणिवफ इतिहास है, परन्तु आज हम अप्रकृतिक आचरण कॊ करने में अपना गौरव समझने लगे हैं। इतना ही नहीं इसे भौतिकवाद और विज्ञान कॆ आधार पर सही ठहराने से भी नहीं चूकते। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी पर गलत पंरम्परा का असर होता जा रहा है। यही हमारे लिए चिन्तन और मनन की मूल अवधारणा कॊ प्रभावित कर रहा है। हमें अपने यथार्थवादी स्वरूप को आधार बनाना होगा।