Monday, February 21, 2011

मौलिक अन्तर है बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस में

अमरेश्वरी चरण सिन्हा
दरभंगा। पिछले वर्ष 2010 से बिहार में 22 मार्च को ''बिहार दिवस'' मनाने की परंपरा शुरू हुई है। सरकारी स्तर पर शुरू की गई इस स्मारित तिथि को '' स्थापना दिवस'' का नाम नहीं दिया गया है। आम लोगों के लिए विचारणीय होना चाहिए। परन्तु जिस प्रकार इस 22 अप्रैल को प्रचारित और प्रसारित करने का प्रयास जारी है। इससे एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि यह आने वाले दिनों में इतिहास की सच्चाई को छिपाकर एक नये परिवेश को जन्म देगी। इसका मूल कारण है कि बाजारवाद से प्रभावित आज का समाज जब अपने 3 पीढ़ियों को जानना भी समय की बर्बादी मानकर उसे नजरअंदाज करने लगा है, ऐसे में भला इतिहास की सच्चाईयों को जानना तो एक बेमानी सा सवाल बनकर उनकी नजरों में रह जायेगा। वस्तुतः बिहार राज्य की स्थापना कोई अंग्रेजों के शासन काल में हुई हो ऐसा भी नहीं है। मुगलकालीन इतिहास बताते हैं कि बिहार एक अलग पूर्व से प्रांत था। इतना ही नहीं महाबीर और बुद्ध के काल में ज्ञान के भंडार के रूप में इस क्षेत्र का वर्णन मिलता है। परन्तु मुगल सल्तनत की समाप्ति के बाद इसे बंगाल के नबाबों के अधीन कर दिया गया। अंग्रेज शासन की सहुलियत के कारण बिहार का संचालन कलकत्ता में बैठकर करने लगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि ब्रिटिश हुकूमत में भारत का मुख्य संचालन केन्द्र काफी दिनों तक बंगाल का कलकत्ता ही था। दूसरी तरफ अंग्रेजों के खिलाफ पूर्वोत्तर भारत में विरोध का स्वर 1900 ई. आते-आते मुखरित होने लगा। उस समय वर्त्तमान ''बंग्लादेश'' भी भारत का अंग था। जिसे अंग्रेजों ने 1947 ई. में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में बांटकर भारत के दो टुकड़े किये थे। जिसकी वर्त्तमान शक्ल पाकिस्तान और बंगला देशों के रूप में है। बहरहाल 1900 ई. के प्रारंभ में अंग्रेजों के खिलाफ भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र मुखर हुआ। आदिवासियों से प्रारंभ आंदोलन को आम लोगों ने अपनाना शुरू कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ऐसे विद्रोहों की उम्मीद नहीं कर रही थी और उसने 1905 ई. में बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। जिसे इतिहासकारों ने ''बंग-भंग'' का नाम दिया है। वस्तुतः अंग्रेज इसके माध्यम से हिन्दू-मुसलमानों में वैमस्यता पैदा करना चाहते थे। हलांकि इसका जबरदस्त विरोध हुआ और स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार होने लगी। कालान्तर में ''बंग-भंग'' के साथ अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त सामूहिक संघर्ष की आधारशिला भारतीयों में बनी। इसी बीच पाश्चात्य जगत से यात्रा कर लौटे बिहार के कई लोगों ने अपनी सोंच के अनुसार बिहार प्रांत को स्वरूप प्रदान करने का अभियान शुरू कर दिया। जिसमें समुन्द्री यात्रा कर विदेश से लौटे डाक्टर गणेश प्रसाद और सच्चिदानन्द सिन्हा की प्रमुख भूमिका रही थी। क्योंकि इन लोगों की मान्यता थी कि पश्चिमी सभ्यता और रोजगार को जब तक आगे नहीं बढ़ाया जायेगा बिहार क्षेत्र की प्रगति नहीं हो सकती और इसके लिए आवश्यक था कि बिहार एक अलग प्रांत बनें। इतिहास की पुस्तकों और कई आत्मकथाओं के वर्णित संदर्भ बताते हैं कि 1894 ई. में सर्वप्रथम अपनी योजना को मूर्तरूप देने के उद्देश्य से बिहार को अलग प्रांत के रूप में स्थापित करने का प्रयास शिक्षित वर्गों ने प्रारंभ किया। इसके लिए इस वर्ष महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा के समापदकत्व में ''बिहार-टाइम्स'' नामक पत्रिका को प्रकाशित किया गया था। इतना ही नहीं वर्त्तमान बिहार-उड़ीसा और झारखण्ड राज्यों के सम्मिलित स्वरूप को बिहार प्रांत मानते हुए 1894 ई. में बंगाल अधीनस्थ बिहार के उपराज्यपाल सर चार्ल्स इलियट को प्रथम ज्ञापन सौंपा गया। लेकिन इसे तत्काल अमान्य कर दिया गया था। भले ही अंग्रेजों ने इस प्रयास को नजरअंदाज किया। पर इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रही स्वतंत्रता की छटपटाहट से वे अनभिज्ञ नहीं थे और ब्रिटिश हुकूमत ने धार्मिक बंटवारा की रूप रेखा तैयार कर 1905 ई. में बंग-भंग कर भारत में रह रहे हिन्दू-मुसलमानों को अलग-अलग करने का प्रयास प्रारंभ किया। दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन और बिहार प्रांत की मांग धीरे-धीरे आम जनमानस में बढ़ती जा रही थी। क्योंकि ''बंग-भंग'' के ब्रितानी निर्णय से विरोध के मुखरित होने के साथ बिहार में राजनैतिक परिवर्त्तन होने लगे। पुनः इस कार्य में लगे महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा ने 1906 ई. में अलग बिहार राज्य के लिए एक पुस्तिका निकाली। इसके साथ-साथ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर मजरूल हक, अली इमाम और हसन इमाम आगे आये। इन लोगों ने पहली बार बिहार प्रदेश सम्मेलन का आयोजन पटना में किया। 1908 ई. में सम्पन्न हुए इस सम्मेलन की अध्यक्षता नबाब सरफराज हुसैन खां ने की थी। जिसमें हसन इमाम को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद बिहार प्रांत की मांग जोर पकड़ती गई। 1906 ई. में प्रकाशित पुस्तक और 1908 ई. के सम्मेलन ने बिहार प्रांत की अवधारणा को जमीनी आधार प्रदान किया। इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के पटना में आयोजित 1912 ई. में 27वें सम्मेलन में बिहार को नई दिशा देने और सम्पूर्ण विकसित करने पर चर्चा हुई। सनद रहे ि इस सम्मेलन के अध्यक्ष आर.एन. मधेलकर महासचिव सच्चिदानन्द सिन्हा और स्वागताध्यक्ष मजरूल हक बनाये गए थे। जहां तक बिहार प्रांत के बंगाल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व में आने का सवाल है, तो 12 दिसम्बर 1911 ई. को दिल्ली के शाही दरबार में सम्राट ने बिहार-उड़ीसा को अलग करने की घोषणा की थी। जिसका नोटिफिकेशन 22 मार्च 1912 को करते हुए स्पष्ट रूप से भूखंडों का निर्धारण कर 1 अप्रैल 1912 ई. को लागू किया गया। चूंकि राज्य सरकार इसे पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहती है, इसलिए यह जानना आवश्यक है कि ''बेंगाल, बिहार एण्ड उड़ीसा एण्ड असम लॉज एक्ट, 1912'' (एक्ट-7 ऑफ 1912) के अनुसार, जो विधिवत बिहार और उड़ीसा राज्य की स्थापना बेंगाल से अलग कर बिहार राज्य के रूप में 1 अप्रैल 1912 को हुई थी। (गजट ऑफ इंडिया, पार्ट-6, पी.पी. 594 से 596) जिसके नोटिफिकेशन नं.-289, दिनांक 22 मार्च 1912 के द्वारा बंगाल प्रांत से बिहार और उड़ीसा प्रांत हेतु भू-खंडों को चिन्हित करते हुए अलग दर्जा 1 अप्रैल 1912 से प्रदान किया गया। गजट के शिड्यूल ''बी'' में भू-खंड दर्शाये गए हैं, जिसके अनुसार तत्कालीन बिहार में 4 प्रमंडलों, 16 जिलों के अलावा उड़ीसा को भी प्रमंडल मानते हुए 5 जिलों को बिहार राज्य में शामिल किया गया। जिसकी राजधानी पटना बनाई गई। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि 1 अप्रैल 1912 ई. को बिहार प्रांत बंगाल से विधिवत रूप में अलग हुआ। जिसका नोटिफिकेशन 22 मार्च 1912 ई. को किया गया था। ऐसे में बिहार स्थापना की तिथि 1 अप्रैल 1912 ही होगी। जहां तक 22 मार्च को बिहार दिवस मनाने की सोंच है, तो हम बिहारवासी किसी भी तिथि को बिहार दिवस मनाने को स्वतंत्र है। हो सकता है कि 1 अप्रैल की तिथि अंग्रेजों ने जान बूझकर निर्धारित की हो। परन्तु यदि इस तिथि को यदि किसी का जन्म होगा, तो वह अंग्रेजों के बनाये गए मापदंड के आधार पर मूर्ख ही होगा ऐसा सोंचना बिल्कुल निराधार है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि आम लोग बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस में फर्क नहीं कर पायेंगे। जिससे एक नये विवाद और गलत इतिहास को प्रश्रय मिलने की संभावना है। क्योंकि आजाद भारत में भी नोटिफिकेशन की तिथि को स्थापना दिवस नहीं माना गया है। तत्पश्चात्‌ बिहार में 1917 ई. में उच्च न्यायालय और 1917 ई. में पटना विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। अतएव बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस के मौलिक अन्तर को समझना प्रायः सबों के लिए आवश्यक तथ्य है।

Sunday, January 23, 2011

महात्मा गांधी के आत्मीय थे ब्रजकिशोर प्रसाद

अमरेश्वरी चरण सिन्हा

दरभंगा। भारत में गांधी जी के दक्षिण अफ्रिका से लौटकर संघर्ष प्रारंभ करने का इतिहास जब से प्रारंभ होता है, उस समय बिहार के बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद स्थापित कांग्रेसी नेता थे। कालांतर में राज कुमार शुक्ल को महात्मा गांधी से मिलवाने और चम्पारण के गिरमिटिया कानून भंग कराने के संघर्ष में उनकी महत्वपूर्ण ही नहीं, अपितु सूत्रधार की भूमिका थी। उन्होंने 1921 से 1933 तक बिहार कांग्रेस में एकछत्र राज किया था। उल्लेखनीय होगा कि लखनऊ में 1916 ई. में बड़े समारोह के साथ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। जिसमें चम्पारण के लोगों के साथ राज कुमार शुक्ल भाग लिये थे। इन लोगों से ब्रजकिशोर बाबू का लगाव भले ही वकील के रूप में शुरू हुआ, परन्तु उन्होंने बिना फीस लिये भी मुकदमों में चम्पारण के सताये किसानों का सहयोग किया। इतना ही नहीं कांग्रेस पार्टी में चम्पारण की समस्या को उन्होंने पूरी मजबूती से रखा था। क्योंकि मुकदमों से जुड़े होने के कारण, उस क्षेत्र में हो रहे अत्याचार से वह भली-भांति परिचित थे। ब्रजकिशोर प्रसाद के ही सभापतित्व में सर्वप्रथम चम्पारण का प्रस्ताव बिहार-प्रांतीय कॉन्फ्रेंस में रखा गया, जो पास भी हुआ था। यहां यह बताना भी जरूरी होगा कि ब्रजकिशोर प्रसाद इम्पीरियल कौंसिल में उस समय बिहार के एक मात्र प्रतिनिधि थे। इस प्रकार महात्मा गांधी को चम्पारण ले जाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। इतिहासकारों ने इसी आंदोलन के बाद स्वतंत्रता संग्राम में गांधी-युग का प्रादुर्भाव माना है। मूल रूप से वर्त्तमान सीवान जिला के श्रीनगर के रहने वाले ब्रजकिशोर बाबू का कार्यक्षेत्र दरभंगा ही रहा। चम्पारण आंदोलन के बाद असहयोग आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। दरभंगा में उनकी अध्यक्षता में धरणीधर प्रसाद के प्रस्ताव पर दरभंगा व्यवहार न्यायालय में आयोजित बैठक में ''नेशनल स्कूल'' का प्रस्ताव पारित हुआ था। जिसके कर्त्ताधर्त्ता बाबू कमलेश्वरी चरण सिन्हा बनाये गए थे। जिन्होंने आम लोगों के सहयोग से मुहल्ला लालबाग में नेशनल स्कूल की स्थापना की। असहयोग आंदोलन के क्रम में ब्रजकिशोर बाबू, धरणीधर प्रसाद सरीके अनेक लोग छात्रों के लिए संचालित वर्गों में पढ़ाने का काम करते थे। ब्रजकिशोर प्रसाद की बड़ी लड़की प्रभावती जी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पत्नी थी और उनकी छोटी लड़की की शादी भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद से हुई थी। आज की पीढ़ी को शायद यह ज्ञात न हो कि ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री और जे.पी. की पत्नी प्रभावती जी को महात्मा गांधी और कस्तूरबा की मानस पुत्री होने का सौभाग्य मिला। गांधी और बा की नजर में प्रभावती जी की क्या थी, इसका एक मात्र दृष्टांत पर्याप्त है। गांधी और बा जेल में बंद थे और आगाखां महल में कस्तूरबा अन्तिम सांसे गिन रही थीं। तब सरकार ने बा की सेवा के लिए एक व्यक्ति को साथ रखने की अनुमति दी। उस समय बा की इच्छानुसार महात्मा गांधी ने प्रभावती जी को बुलाया था। उन दिनों प्रभावती जी भी भागलपुर जेल में बंद थी। काफी दिक्कतों के बाद उनका स्थानान्तरण आगाखां महल जेल में हुआ था। कस्तूरबा की मृत्यु शय्‌या के पास गांधी जी के पास जो दो लोग थे, उनमें ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती भी थी। इस प्रकार ब्रजकिशोर बाबू और महात्मा गांधी के बीच आन्तरिक स्नेह का पता चलता है। दरभंगा को यह सौभाग्य प्राप्त है कि यहां स्वतंत्रता संग्राम के जिन तीन लोगों ने गांधी-युग में जबरदस्त काम प्रारंभ किया उनमें ब्रजकिशोर प्रसाद, धरणीधर प्रसाद और कमलेश्वरी चरण सिन्हा प्रमुख थे। बाद में कारवां बढ़ता गया और सफलता मिलती गई। मृत्युपरांत ब्रजकिशोर प्रसाद के चित्र का अनावरण करने के लिए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के बिना नेशनल स्कूल, दरभंगा में आकर अपने लगाव का दृष्टांत प्रस्तुत किया था। जिसका जिक्र जय प्रकाश नारायण ने कमलेश्वरी बाबू की शोक सभा में उसी स्थान पर करते हुए इतिहास का पुनरावलोकन कराया था।