Monday, February 21, 2011

मौलिक अन्तर है बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस में

अमरेश्वरी चरण सिन्हा
दरभंगा। पिछले वर्ष 2010 से बिहार में 22 मार्च को ''बिहार दिवस'' मनाने की परंपरा शुरू हुई है। सरकारी स्तर पर शुरू की गई इस स्मारित तिथि को '' स्थापना दिवस'' का नाम नहीं दिया गया है। आम लोगों के लिए विचारणीय होना चाहिए। परन्तु जिस प्रकार इस 22 अप्रैल को प्रचारित और प्रसारित करने का प्रयास जारी है। इससे एक बात बिल्कुल स्पष्ट है कि यह आने वाले दिनों में इतिहास की सच्चाई को छिपाकर एक नये परिवेश को जन्म देगी। इसका मूल कारण है कि बाजारवाद से प्रभावित आज का समाज जब अपने 3 पीढ़ियों को जानना भी समय की बर्बादी मानकर उसे नजरअंदाज करने लगा है, ऐसे में भला इतिहास की सच्चाईयों को जानना तो एक बेमानी सा सवाल बनकर उनकी नजरों में रह जायेगा। वस्तुतः बिहार राज्य की स्थापना कोई अंग्रेजों के शासन काल में हुई हो ऐसा भी नहीं है। मुगलकालीन इतिहास बताते हैं कि बिहार एक अलग पूर्व से प्रांत था। इतना ही नहीं महाबीर और बुद्ध के काल में ज्ञान के भंडार के रूप में इस क्षेत्र का वर्णन मिलता है। परन्तु मुगल सल्तनत की समाप्ति के बाद इसे बंगाल के नबाबों के अधीन कर दिया गया। अंग्रेज शासन की सहुलियत के कारण बिहार का संचालन कलकत्ता में बैठकर करने लगे। हमें यह भी याद रखना होगा कि ब्रिटिश हुकूमत में भारत का मुख्य संचालन केन्द्र काफी दिनों तक बंगाल का कलकत्ता ही था। दूसरी तरफ अंग्रेजों के खिलाफ पूर्वोत्तर भारत में विरोध का स्वर 1900 ई. आते-आते मुखरित होने लगा। उस समय वर्त्तमान ''बंग्लादेश'' भी भारत का अंग था। जिसे अंग्रेजों ने 1947 ई. में पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के रूप में बांटकर भारत के दो टुकड़े किये थे। जिसकी वर्त्तमान शक्ल पाकिस्तान और बंगला देशों के रूप में है। बहरहाल 1900 ई. के प्रारंभ में अंग्रेजों के खिलाफ भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र मुखर हुआ। आदिवासियों से प्रारंभ आंदोलन को आम लोगों ने अपनाना शुरू कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत ऐसे विद्रोहों की उम्मीद नहीं कर रही थी और उसने 1905 ई. में बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी। जिसे इतिहासकारों ने ''बंग-भंग'' का नाम दिया है। वस्तुतः अंग्रेज इसके माध्यम से हिन्दू-मुसलमानों में वैमस्यता पैदा करना चाहते थे। हलांकि इसका जबरदस्त विरोध हुआ और स्वदेशी आंदोलन की भूमिका तैयार होने लगी। कालान्तर में ''बंग-भंग'' के साथ अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त सामूहिक संघर्ष की आधारशिला भारतीयों में बनी। इसी बीच पाश्चात्य जगत से यात्रा कर लौटे बिहार के कई लोगों ने अपनी सोंच के अनुसार बिहार प्रांत को स्वरूप प्रदान करने का अभियान शुरू कर दिया। जिसमें समुन्द्री यात्रा कर विदेश से लौटे डाक्टर गणेश प्रसाद और सच्चिदानन्द सिन्हा की प्रमुख भूमिका रही थी। क्योंकि इन लोगों की मान्यता थी कि पश्चिमी सभ्यता और रोजगार को जब तक आगे नहीं बढ़ाया जायेगा बिहार क्षेत्र की प्रगति नहीं हो सकती और इसके लिए आवश्यक था कि बिहार एक अलग प्रांत बनें। इतिहास की पुस्तकों और कई आत्मकथाओं के वर्णित संदर्भ बताते हैं कि 1894 ई. में सर्वप्रथम अपनी योजना को मूर्तरूप देने के उद्देश्य से बिहार को अलग प्रांत के रूप में स्थापित करने का प्रयास शिक्षित वर्गों ने प्रारंभ किया। इसके लिए इस वर्ष महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा के समापदकत्व में ''बिहार-टाइम्स'' नामक पत्रिका को प्रकाशित किया गया था। इतना ही नहीं वर्त्तमान बिहार-उड़ीसा और झारखण्ड राज्यों के सम्मिलित स्वरूप को बिहार प्रांत मानते हुए 1894 ई. में बंगाल अधीनस्थ बिहार के उपराज्यपाल सर चार्ल्स इलियट को प्रथम ज्ञापन सौंपा गया। लेकिन इसे तत्काल अमान्य कर दिया गया था। भले ही अंग्रेजों ने इस प्रयास को नजरअंदाज किया। पर इस क्षेत्र में लगातार बढ़ रही स्वतंत्रता की छटपटाहट से वे अनभिज्ञ नहीं थे और ब्रिटिश हुकूमत ने धार्मिक बंटवारा की रूप रेखा तैयार कर 1905 ई. में बंग-भंग कर भारत में रह रहे हिन्दू-मुसलमानों को अलग-अलग करने का प्रयास प्रारंभ किया। दूसरी ओर स्वतंत्रता आंदोलन और बिहार प्रांत की मांग धीरे-धीरे आम जनमानस में बढ़ती जा रही थी। क्योंकि ''बंग-भंग'' के ब्रितानी निर्णय से विरोध के मुखरित होने के साथ बिहार में राजनैतिक परिवर्त्तन होने लगे। पुनः इस कार्य में लगे महेश नारायण और सच्चिदानन्द सिन्हा ने 1906 ई. में अलग बिहार राज्य के लिए एक पुस्तिका निकाली। इसके साथ-साथ डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर मजरूल हक, अली इमाम और हसन इमाम आगे आये। इन लोगों ने पहली बार बिहार प्रदेश सम्मेलन का आयोजन पटना में किया। 1908 ई. में सम्पन्न हुए इस सम्मेलन की अध्यक्षता नबाब सरफराज हुसैन खां ने की थी। जिसमें हसन इमाम को बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद बिहार प्रांत की मांग जोर पकड़ती गई। 1906 ई. में प्रकाशित पुस्तक और 1908 ई. के सम्मेलन ने बिहार प्रांत की अवधारणा को जमीनी आधार प्रदान किया। इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के पटना में आयोजित 1912 ई. में 27वें सम्मेलन में बिहार को नई दिशा देने और सम्पूर्ण विकसित करने पर चर्चा हुई। सनद रहे ि इस सम्मेलन के अध्यक्ष आर.एन. मधेलकर महासचिव सच्चिदानन्द सिन्हा और स्वागताध्यक्ष मजरूल हक बनाये गए थे। जहां तक बिहार प्रांत के बंगाल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व में आने का सवाल है, तो 12 दिसम्बर 1911 ई. को दिल्ली के शाही दरबार में सम्राट ने बिहार-उड़ीसा को अलग करने की घोषणा की थी। जिसका नोटिफिकेशन 22 मार्च 1912 को करते हुए स्पष्ट रूप से भूखंडों का निर्धारण कर 1 अप्रैल 1912 ई. को लागू किया गया। चूंकि राज्य सरकार इसे पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहती है, इसलिए यह जानना आवश्यक है कि ''बेंगाल, बिहार एण्ड उड़ीसा एण्ड असम लॉज एक्ट, 1912'' (एक्ट-7 ऑफ 1912) के अनुसार, जो विधिवत बिहार और उड़ीसा राज्य की स्थापना बेंगाल से अलग कर बिहार राज्य के रूप में 1 अप्रैल 1912 को हुई थी। (गजट ऑफ इंडिया, पार्ट-6, पी.पी. 594 से 596) जिसके नोटिफिकेशन नं.-289, दिनांक 22 मार्च 1912 के द्वारा बंगाल प्रांत से बिहार और उड़ीसा प्रांत हेतु भू-खंडों को चिन्हित करते हुए अलग दर्जा 1 अप्रैल 1912 से प्रदान किया गया। गजट के शिड्यूल ''बी'' में भू-खंड दर्शाये गए हैं, जिसके अनुसार तत्कालीन बिहार में 4 प्रमंडलों, 16 जिलों के अलावा उड़ीसा को भी प्रमंडल मानते हुए 5 जिलों को बिहार राज्य में शामिल किया गया। जिसकी राजधानी पटना बनाई गई। इससे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि 1 अप्रैल 1912 ई. को बिहार प्रांत बंगाल से विधिवत रूप में अलग हुआ। जिसका नोटिफिकेशन 22 मार्च 1912 ई. को किया गया था। ऐसे में बिहार स्थापना की तिथि 1 अप्रैल 1912 ही होगी। जहां तक 22 मार्च को बिहार दिवस मनाने की सोंच है, तो हम बिहारवासी किसी भी तिथि को बिहार दिवस मनाने को स्वतंत्र है। हो सकता है कि 1 अप्रैल की तिथि अंग्रेजों ने जान बूझकर निर्धारित की हो। परन्तु यदि इस तिथि को यदि किसी का जन्म होगा, तो वह अंग्रेजों के बनाये गए मापदंड के आधार पर मूर्ख ही होगा ऐसा सोंचना बिल्कुल निराधार है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि आम लोग बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस में फर्क नहीं कर पायेंगे। जिससे एक नये विवाद और गलत इतिहास को प्रश्रय मिलने की संभावना है। क्योंकि आजाद भारत में भी नोटिफिकेशन की तिथि को स्थापना दिवस नहीं माना गया है। तत्पश्चात्‌ बिहार में 1917 ई. में उच्च न्यायालय और 1917 ई. में पटना विश्वविद्यालय अस्तित्व में आया। अतएव बिहार दिवस और बिहार स्थापना दिवस के मौलिक अन्तर को समझना प्रायः सबों के लिए आवश्यक तथ्य है।

Sunday, January 23, 2011

महात्मा गांधी के आत्मीय थे ब्रजकिशोर प्रसाद

अमरेश्वरी चरण सिन्हा

दरभंगा। भारत में गांधी जी के दक्षिण अफ्रिका से लौटकर संघर्ष प्रारंभ करने का इतिहास जब से प्रारंभ होता है, उस समय बिहार के बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद स्थापित कांग्रेसी नेता थे। कालांतर में राज कुमार शुक्ल को महात्मा गांधी से मिलवाने और चम्पारण के गिरमिटिया कानून भंग कराने के संघर्ष में उनकी महत्वपूर्ण ही नहीं, अपितु सूत्रधार की भूमिका थी। उन्होंने 1921 से 1933 तक बिहार कांग्रेस में एकछत्र राज किया था। उल्लेखनीय होगा कि लखनऊ में 1916 ई. में बड़े समारोह के साथ कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। जिसमें चम्पारण के लोगों के साथ राज कुमार शुक्ल भाग लिये थे। इन लोगों से ब्रजकिशोर बाबू का लगाव भले ही वकील के रूप में शुरू हुआ, परन्तु उन्होंने बिना फीस लिये भी मुकदमों में चम्पारण के सताये किसानों का सहयोग किया। इतना ही नहीं कांग्रेस पार्टी में चम्पारण की समस्या को उन्होंने पूरी मजबूती से रखा था। क्योंकि मुकदमों से जुड़े होने के कारण, उस क्षेत्र में हो रहे अत्याचार से वह भली-भांति परिचित थे। ब्रजकिशोर प्रसाद के ही सभापतित्व में सर्वप्रथम चम्पारण का प्रस्ताव बिहार-प्रांतीय कॉन्फ्रेंस में रखा गया, जो पास भी हुआ था। यहां यह बताना भी जरूरी होगा कि ब्रजकिशोर प्रसाद इम्पीरियल कौंसिल में उस समय बिहार के एक मात्र प्रतिनिधि थे। इस प्रकार महात्मा गांधी को चम्पारण ले जाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। इतिहासकारों ने इसी आंदोलन के बाद स्वतंत्रता संग्राम में गांधी-युग का प्रादुर्भाव माना है। मूल रूप से वर्त्तमान सीवान जिला के श्रीनगर के रहने वाले ब्रजकिशोर बाबू का कार्यक्षेत्र दरभंगा ही रहा। चम्पारण आंदोलन के बाद असहयोग आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। दरभंगा में उनकी अध्यक्षता में धरणीधर प्रसाद के प्रस्ताव पर दरभंगा व्यवहार न्यायालय में आयोजित बैठक में ''नेशनल स्कूल'' का प्रस्ताव पारित हुआ था। जिसके कर्त्ताधर्त्ता बाबू कमलेश्वरी चरण सिन्हा बनाये गए थे। जिन्होंने आम लोगों के सहयोग से मुहल्ला लालबाग में नेशनल स्कूल की स्थापना की। असहयोग आंदोलन के क्रम में ब्रजकिशोर बाबू, धरणीधर प्रसाद सरीके अनेक लोग छात्रों के लिए संचालित वर्गों में पढ़ाने का काम करते थे। ब्रजकिशोर प्रसाद की बड़ी लड़की प्रभावती जी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पत्नी थी और उनकी छोटी लड़की की शादी भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के पुत्र मृत्युंजय प्रसाद से हुई थी। आज की पीढ़ी को शायद यह ज्ञात न हो कि ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री और जे.पी. की पत्नी प्रभावती जी को महात्मा गांधी और कस्तूरबा की मानस पुत्री होने का सौभाग्य मिला। गांधी और बा की नजर में प्रभावती जी की क्या थी, इसका एक मात्र दृष्टांत पर्याप्त है। गांधी और बा जेल में बंद थे और आगाखां महल में कस्तूरबा अन्तिम सांसे गिन रही थीं। तब सरकार ने बा की सेवा के लिए एक व्यक्ति को साथ रखने की अनुमति दी। उस समय बा की इच्छानुसार महात्मा गांधी ने प्रभावती जी को बुलाया था। उन दिनों प्रभावती जी भी भागलपुर जेल में बंद थी। काफी दिक्कतों के बाद उनका स्थानान्तरण आगाखां महल जेल में हुआ था। कस्तूरबा की मृत्यु शय्‌या के पास गांधी जी के पास जो दो लोग थे, उनमें ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती भी थी। इस प्रकार ब्रजकिशोर बाबू और महात्मा गांधी के बीच आन्तरिक स्नेह का पता चलता है। दरभंगा को यह सौभाग्य प्राप्त है कि यहां स्वतंत्रता संग्राम के जिन तीन लोगों ने गांधी-युग में जबरदस्त काम प्रारंभ किया उनमें ब्रजकिशोर प्रसाद, धरणीधर प्रसाद और कमलेश्वरी चरण सिन्हा प्रमुख थे। बाद में कारवां बढ़ता गया और सफलता मिलती गई। मृत्युपरांत ब्रजकिशोर प्रसाद के चित्र का अनावरण करने के लिए भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के बिना नेशनल स्कूल, दरभंगा में आकर अपने लगाव का दृष्टांत प्रस्तुत किया था। जिसका जिक्र जय प्रकाश नारायण ने कमलेश्वरी बाबू की शोक सभा में उसी स्थान पर करते हुए इतिहास का पुनरावलोकन कराया था।

Tuesday, September 14, 2010

संस्कृति और परम्परा की रक्षा जरूरी

अमरेश्वरी चरण सिन्हा
दरभंगा। बिहार सरकार ने विद्यापति को मिथिला क्षेत्र का धरोहर मानते हुए, उन्हें सरकारी स्तर पर सम्मानित किया है। अब उन्हें सरकारी समारोह आयोजित कर याद किया जाना है। जनमानस के बीच महाकवि विद्यापति चिरकाल से स्मरणीय है और रहेंगे। संस्कृत, अवहट्ठ, मैथिली आदि भाषाओं की कृतियां सदैव से पुस्तकों-ग्रंथों व आवाम के कंठों में संरक्षित है। लेकिन इसके साथ ही यह तथ्य भी उजागर हो रहा है कि हम विद्यापति जैसे महान विभूति को सिर्फ राजनैतिक दृष्टिकोण से ही सम्मानित करना चाहते हैं। ऐसा नहीं होता, तो हमारे लिए यह जीने-मरने की बात होती, जब दरभंगा के कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से महाकवि विद्यापति द्वारा ताल पत्र पर हस्तलिखित 3 खंडों में भागवत की पाण्डुलिपि वर्ष 2003 के 28 नवम्बर को गायब हुई थी। जिसका मामला स्थानीय विश्वविद्यालय, थाना में दिनांक 29 नवम्बर 2003 को 175/3 प्राथमिकी में दर्ज किया गया। इतना ही नहीं, इसके साथ 10 और अमूल्य ग्रंथ चोरी हुए, जिसमें पं. हेमांगद ठाकुर द्वारा रचि 'ग्रहण माला' भी गायब हो गया। जो शायद ज्योतिष जगत में आगामी सैकड़ों वर्षों में ग्रहों की स्थिति को स्पष्टता प्रदान करने में सक्षम था। इतना ही नहीं दरभंगा में राज के सहयोग से स्थापित मिथिला स्नातकोत्तर संस्कृत शोध संस्थान से वर्ष 2003 में 28 मार्च को 26 ग्रंथों व पुस्तकों की चोरी हुई। यह मामला भी विश्वविद्यालय थाना में प्राथमिकी संख्या 45/3 के माध्यम से दिनांक 29 मार्च को दर्ज कराया गया। ऐसे में हम पाते हैं कि वर्ष 2003 में आठ महीने के अन्तराल में कुल 36 पाण्डुलिपि, ग्रंथ व पुस्तकों क चोरी हुई। इतना ही नहीं वर्ष 1981 ई. में चांदी व बहुमूल्य धातुओं से निर्मित घड़ी-घोड़ा आदि के साथ कुछ पाण्डुलिपियों व ग्रंथों की चोरी और वर्ष 2004 ई. में झूमर की चोरी संस्कृत विश्वविद्यालय से हुई थी। कहने का अभिप्राय बिल्कुल स्पष्ट है कि एक ओर सरकार विद्यापति को सम्मानित करना चाहती है और वहीं दूसरी ओर उनकी अमूल्य कृतियों के संरक्षण व संवर्धन को लेकर चिन्तित नहीं है। इसके अलावा राजनैतिक रूप से वातावरण में खेले जा रहे लुभावने प्रयासों से आवाम आनन्दित हो रही है। यह हमें अपने अतीत और संस्कारों से अलग करने के समान है। वस्तुतः यदि हम अपने पूर्वजों की थाती को बचा नहीं पाते, तो इससे हमारी सभ्यता-संस्कृति पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक है। दरभंगा और काशी का महत्व आध्यात्म व ज्ञान के क्षेत्र में सनातन धर्मावलंबियों के बीच खासकर इसलिए रहा, क्योंकि अकूट सम्पदाओं से सम्पन्न इन क्षेत्रों से सदैव ज्ञान पुंज विकसित होकर प्राणियों के प्राकृतिक जीवन तत्व को समझने का मार्गदर्शन करते रहे हैं। पर आज की पीढ़ी इसे संरक्षित करने में असफल नजर आ रही है। वहीं लोक लुभाने तत्कालिक व स्वार्थ सिद्धि युक्त राजनीति का प्रभाव इतना बढ़ता जा रहा है कि उत्तराधिकारी उसी को सब कुछ मान कर अपने दायित्व से परे होते जा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि इन घटित घटनाओं के बाद आवाम ने आवाज नहीं उठाई या आज भी इसके लिए संघर्ष नहीं हो रहा है। परन्तु उस संघर्ष का आम जनों में जागरण की स्थिति नहीं उत्पन्न होकर, सिर्फ सरकार की घोषणाओं में हो रही दिलचस्पी ने उसके रास्ते की दिशा-दशा बदल दी है। जहां तक इन सवालों के उठने की बात है, तो विधानसभा, सिनेट-सिण्डिकेट की बैठकों में इसे लाया गया। सरकार और प्रशासनिक स्तर पर इसे हल करने की दिशा में आश्वास भी मिला, परन्तु बहुत कुछ हल निकल पाया, ऐसा नहीं लगता। अचानक वर्ष 2010 के अगस्त महीने में समाचार पत्रों में कतिपय पाण्डुलिपियों की बरामदगी से संबंधित खबरें आईं। इस विषय को लेकर संघर्षरत संस्था मिथिला धर्म रक्षार्थ संघर्ष समिति ने बिहार विधान परिषद् के सभापति पं. ताराकांत झा सहित दरभंगा प्रमंडल व जिला के उच्चाधिकारियों से सम्पर्क कर बरामद समान को विधि सम्मत कार्रवाई के साथ पैतृक संस्था को देने के अलावा चोरी में संलिप्त लोगों को कानूनी रूप से दंडित करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन अभी तक इन दोनों ही सवालों पर कुछ हुआ नहीं है। हां! यह जरूर बताया जा रहा है कि प्रक्रिया जारी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार सिर्फ महाकवि विद्यापति को सरकारी समारोहों में यादकर आवाम को अपनी ओर आकर्षित करना चाहती है या वह मिथिला के धरोहरों को भी संरक्षण व संवर्धन देने के प्रति सचेत है। एक ओर हम विद्यापति के सम्मान से प्रसन्न हों, वहीं दूसरी ओर उनकी हस्तलिखित ताल पत्र की पाण्डुलिपियां चोरी के 7 वर्षों बाद भी वापस नहीं हो सके, जिसके संबंध में यह बताया जाता है कि इसका अन्तराष्ट्रीय बाजार में कीमत करोड़ों में है। वहीं आवाम सिर्फ मूकदर्शक बनकर रहना चाहती है और चन्द लोक-लुभावने नारों से प्रसन्न हो शान्त बैठी है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि यह सवाल न किसी सरकार या पार्टी से जुड़ा है। बल्कि यह देश और खासकर मिथिला की ऐतिहासिक स्मिता से जुड़ा प्रश्न है, जिसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों में विभाग खोले गए है और इस पर सरकारी धन खर्च किये जाते हैं। तब फिर आखिर क्या कारण है कि देश के ऐसे अमूल धरोहरों को संरक्षित नहीं रखा जा पा रहा है। आज जब भौतिकवाद का असर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सिर चढ़कर बोल रहा है, ऐसे में अपने अतीत के प्रति उदासीनता कोई सुनहरे भविष्य की ओर हमें ले जा सकेगा, यह मानकर बैठ जाना उचित नहीं है। क्योंकि भारतीय दर्शन के आयाम में पूर्वजों के सम्मान व आशीष की कामना सन्निहित है। जिसे प्रत्येक युग में संरक्षित किया गया है। आज फिर एक बार सांसारिक भंवर जाल को तोड़कर अतीत में झांकते हुए, उसे आदर्श मानकर चलने की आवश्यकता है। शायद तभी भारत का मौलिक सत्य व स्वरूप को पुनः जागृत अवस्था में पाया जा सकता है। इस सनातन सत्य के मर्म को समझने की आवश्यकता है।

Thursday, August 6, 2009

प्रवचनों को आत्मसाथ नहीं कर पाती है वर्तमान पीढ़ी

अमरेश्वरी चरण सिन्हा
दरभंगा। भारत में सभी धर्मॊ कॆ विचारकॊ ने स्वयं में चरित्र निर्माण कॊ महत्वपूर्ण बताते हुए प्रयास करनॆ का मार्ग प्रशास्त किया। इस काम कॆ लिए ऐसे महात्माओं ने पहले अपने कॊ शुदि से युक्त किया। ऐसे लोगों में कुछ तो ऐसे भी हुए जिन्होंने आत्म-शुदि कॆ बाद भी अपने कॊ गौण ही रखा। ऐसे ही धर्मात्मा और तपस्वी थे हमदुन कस्सार नेशापुरी। उनकी ख्याति चारों ओर फॆली थी। परन्तु वे समर्पण भाव से खुदा की बंदगी करते हुए समय व्यतीत करने में ही अपना कर्त्तव्य समझते थे। एक बार इलाकॆ कॆ कुछ लोग उनकॆ पास आये और उनसे दरखास्त की ÷हजरत आप मजलिस में आ कर लोगों कॊ कुछ नसीहत करते तो बुतों कॊ लाभ मिलेगा।' हजरत हमदुत ने नम्रतापूर्ववफ कहा- ÷मे भाईयों, उपदेश देने की योग्यता अभी मुझमें नहीं है। क्योंकि मैं दुनिया कॆ मानसम्मान तथा लोक-प्रतिषठा कॆ मोह से मुक्त हुआ नहीं। इस कारण मेरा उपदेश कितने भी अच्छे हो, परन्तु वह लोगों कॆ दिलों में नहीं उतरेगा। जो उपदेश वचन दिलों में गह उत नहीं और मनुष्य कॆ जीवन में परिवर्त्तन न करें ऐसे वचनों कॊ बोलना ज्ञान का उपहास करना है और यह कर्म र्ध्म कॊ हानि पहुंचाने जैसा हो जाता है।' उन्होंने यह भी कहा की मौन रख कर र्ध्म-कार्य करने हम जाये, इसकॆ जैसी लाभकारी बात दूसरी कॊई नहीं है। जो लोग सचमुच र्ध्मपरायण होते हैं उन्हीं का उपदेश सुननेवालों कॆ लिए लाभकारी होता है। जो मनुष्य खुद कॊ ही धर्माचरण बनाने कॆ लिए प्रयासरत रह कर अपना समय बिता रहा हो और अपना चरित्रय सुधर न कर सका हो, उसे चाहिए की वह तब तक र्ध्म की बातों कॊ मन में दृढ़ता से अंकीत करते रहे। जब तका वह स्वयं को सुधार न ले। उसे उपदेशवफ नहीं बनने का अधिकार है जो ऐसा नहीं कर पाया हो। मतात्मा ने कहा ÷बोलने वाले और सुनने वाले दोनों कॆ लिए यही तरीका फायदेमंद हैं।' आज हमें सोचना होगा कि देश और आज की पीढ़ी को हम क्या दे पा रहे हैं। यह सोंचना राष्ट्रद्रोह और कर्त्तव्यच्युत हमें करॆगा जब हम यह कहें कि देश या समाज ने हमें क्या दिया। यह वर्त्तमान समय की सबसे बढी मांग है। आज कॆ समय में सिर्फ् अपनी बातों कॊ मनवाने की होड़ लगी है। सबसे बड़ी विंढ्बना है कि आज देश में मीडिया कॆ माध्यम से अनेक लोग प्रवचन करते नजर आते है, परन्तु उनकॆ द्वारा दिया गया प्रवचन एक आयोजन में पहुंचे भी कॆ कानों तक अवश्य पहुंचता है, परन्तु हृदय तक उसका असर कितना हो पाता यह कह पाना मुश्विकल है। उसी प्रकार देश कॆ मार्गदर्शको की बातों और बताये कार्यक्रमों कॊ हम कॊल्ड-स्टोरॆज से सिर्फ समारोह स्थलों पर निकालते हैं और फिर उसे वहीं ले जाकर बंद कर देते हैं। यह विश्व कॆ पैमाने पर हमारे लिए क्षोभा की बात होगी। क्योंकि प्रकृति से जोड़ कार हमारी साध्ना पौराणिवफ इतिहास है, परन्तु आज हम अप्रकृतिक आचरण कॊ करने में अपना गौरव समझने लगे हैं। इतना ही नहीं इसे भौतिकवाद और विज्ञान कॆ आधार पर सही ठहराने से भी नहीं चूकते। इससे पीढ़ी-दर-पीढ़ी पर गलत पंरम्परा का असर होता जा रहा है। यही हमारे लिए चिन्तन और मनन की मूल अवधारणा कॊ प्रभावित कर रहा है। हमें अपने यथार्थवादी स्वरूप को आधार बनाना होगा।

Saturday, January 3, 2009

सामाजिक सरोकार रखने वाले हर व्यक्ति के लिए प्रेरणा के स्रोत - गुप्ता जी

जाने-माने शायर साहिर लुध्यािनवी का मानना है कि :- ध्ड़कने रूकने से अरमान नहीं मर जाते, सांस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते,होंठ जम जाने से पफरमान नहीं मर जाते, जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती। पत्राकार राम गोविन्द प्रसाद गुप्ता की जिस्मानी मौत का यह अर्थ नहीं कि अपने जीवन काल में उन्होने जो सपने देखे थे, मृत्यु के साथ ही वे सभी दपफन हो गये। सामाजिक सरोकार से जुड़े उन सपनों को साकार करने में उनके दोनो पत्राकार पुत्रा अहर्निश लगे हुए है। स्व- गुप्ता ने स्थानीय पत्राकारों को एक-दूसरे से जोड़ने व समाज में एकता कायम करने का जो अपना प्रयास अध्रूा रख छोड़ा था, उसे आगे बढ़ाने का काम उनके दोनो ही पुत्रा कर रहे है। स्व- गुप्ता पत्राकार के रूप में आजीवन सयि रहे। स्थानीय स्तर पर जब कोई भी समस्या आती थी, वह सबको एकत्राित करके उसके निदान का यथासाहस प्रयास करते रहे। बाहर से भूले-भटके पत्राकार यदि दोनार चौक तक आ भी जाते थे तो उन्हे आगे बढ़कर न सिपर्फ उनसे परिचय पूछते बल्कि खाने-पीने से लेकर उनके ठहरने का भी वे बंदोबस्त करते थे। चूंकि वे समाचार एजेन्सी से जुड़े थे इसलिए उनका सरोकार सीमित न होकर व्यापक स्तर पर पफैला था। दरभंगा पहुंचने वाला हर अखबार नवीस गुप्ता जी तक पहुंचना नहीं भूलता था। अपनी सदाशयता के कारण वे हरदिल अजीज थे। स्थानीय समाज में भी उन्हे हर तबका के लोग बड़े ही आदर की दृष्टि से देखते थे। वे जब तक जिन्दा रहे, उन्होने बड़ी निष्ठा से अपने सरोकार को निभाया। उनके छोटे पुत्रा प्रमोद गुप्ता भी अपने पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए पत्राकारों के बीच एकता बनाये रखने की दिशा में प्रयत्नशील रहते है। अतिथि सत्कार की-पैतृक विरासत को भी वे उसी निष्ठा के साथ अक्षुण्ण रखने के लिए सदा तत्पर रहते है। सामाजिक स्तर पर समस्याओं के निराकरण की भी चिंता उन्हे सतत सालती रहती है। ऐसे में प्रशासनिक स्तर से कैसे उनका निदान हो, इस दिशा में वे कारगर प्रयास करने से नहीं चूकते है। पत्राकार जगत में अग्रज पीढ़ी के प्रति आदर भाव रखना तथा नयी पीढ़ी के पत्राकारों के लिए सतत स्नेह भाव रखना प्रमोद ने अपने पिता से सीखा है। किसी भी परिस्थिति में र्ध्यै नहीं खोना स्व- गुप्ता के स्थायी स्वभाव में शामिल था। इसी तरह स्व- गुप्ता की प्रतिबता समाज के प्रति भी थी। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है उनका जनप्रतिनिध्ि होना। आध्ुनिक युग में जनता का प्रतिनिध्ि बनने के लिए लोगों को एक साथ सब तरह के हथकंडे अपनाने होते है लेकिन स्व- गुप्ता ने इतने आसान ढंग से नगर निगम का चुनाव जीत लिया, जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता है। एक जनप्रतिनिध्ि के रूप में गुप्ता जी को लोग आज भी याद करते है। उनके उपकार ण को यहां का समाज कभी चुका नहीं सकता है। हालांकि सामाज ने ‘उण’ होने के लिए उनके ज्येष्ठ पुत्रा प्रदीप गुप्ता को नगर निगम के चुनाव में खड़े होने का न्योता दिया और उसी समाज ने प्रदीप को भारी मतों से जीता कर जनप्रतिनिध्ि का खिताब दे डाला। किसी व्यक्ति के सामाजिक कार्यो का सम्मान इस तरह से किया जाना निस्संदेह एक ऐसा उदाहरण होगा जिसपर आने वाली पीढ़ियां पफ करती रहेंगी। कहने का अभिप्राय यह कि सचमुच गुप्ता जी आज हमारे बीच नही हैं लेकिन उनके द्वारा किये गये सामाजिक कार्य खासकर ऐसे व्यक्तियों के लिए जो अपने जीवन में कुछ कर गुजरने का माद्दा रखते हैय के लिए ‘पाथेय’ का काम करेंगे, इसी विश्वास के साथ मैं उनके प्रति अपना आदर भाव प्रदर्शित करते हुए उन्हे श्रा-सुमन अर्पित करता हू।
डॉ- कृष्ण कुमार

‘‘ किन्नर गंधर्व देवताओं की बात नहीं, मानव से मानव का मुक्त मिलन चाहिए’’-



पक्तियों को निरंतर स्मरण कराते रहने वाले व्यक्तित्व की अन्त-विहीन निद्रा ! जैसे मन स्वीकार नहीं कर पा रहा है। जिसके लिए अपना परिवार का माने मात्रा अपनी संतति नहीं अपितु ‘‘वसुध्वै कुटुम्बकम्‌’’ मंत्रा में आस्था रखकर ‘‘अपनो’’ को नये सिरे से परिभाषित करना था। आसमानी रंग की राजदूत मोटरसाईकिल, गोल रिंग वाला ‘हेड लाईट’- जैसे रामगोविन्द प्रसाद गुप्ता के लिए राणाप्रताप का ‘‘चेतक’’ हो। रोज नगर के चप्पे-चप्पे का भ्रमण और राज्य की राजधनी तक की साप्ताहिक यात्राा भी थकान का अनुभव नहीं होने देता था। परन्तु, कोई भी यात्राा व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि सामाज के विभिन्न लोगों की समस्याओं की कागजी पुलिंदा के साथ कुछ के आवास, कुछ के लिए दो जून की रोटी का जुगार तो कई होठों पर मुस्कान बिखेड़ने की कामना लिए होता था। रामगोविन्द बाबू बरगद की पेड़ की तरह थे जो स्वयं जेठ की तपती दोपहरी में ‘लू’ की जलन से झुलसता है परन्तु थके-हारे पथिक को शीतलता दे राहत प्रदान करता रहता है। किसी से ‘सेेसी’ नहीं- किसी की ‘सेक्यूरिटी’ नहीं-जनता जनार्दन की पीड़ा हरण की चिंता से रात की सन्नाटे को चीड़ती हुई उनकी मोटरसाईकिल की ‘टिपिकल’ आवाज-दूर से ही उनके आगमन की सूचना देती थी। दोनार चौक स्थित तिरहुतवाणी का छोटा सा कार्यालय- मानो उनका आवत-जावत विश्रामालय था। रोज घर से निकलकर, कुछ दूर पैदल चलकर तो कुछ दूरी मोटरसाईकिल से तय कर पहले दोनार में ठहराव पिफर गंतव्य की ओर प्रस्थान उनकी दिनचर्या थी। कहते है बड़ा होना बड़ी बात है परन्तु, बड़प्पन उससे भी बड़ी चीज है। अति साधरण व्यक्ति से भी सहजता से मिलना, उसकी समस्याओं को र्ध्यै पूर्वक सुनना एवं उसकी समाधन हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना-गुप्ता जी का बड़प्पन ही तो था। मन के पन्नों पर अंकित इतनी सारी गुण गाथाओं की आपसी प्रतिस्पर्ध- पहले हम तो पहले हम की आपाधपी ने ही संस्मरण के म में उथल-पुथल मचा डाला है। संस्मरणों का मवार उल्लेख जैसे असंभव हो गया है। सभी एक से बढ़कर एक। इसे सजाने की जितनी भी चेष्टा करता हॅूं, उतना ही बिखड़ने लगता है। बस जस का तस छोड़ने की विवशता।रामगोविन्द बाबू पराग सौरभ से महमह करती उस पुष्प-वाटिका के प्रतीक थे, जहां मन कभी जूही तो कभी गुलाब हो जाता था, कभी कनैल तो कभी हरसिंगार की खुशबू से सुवासित हो जाता था। समाज के उस नंदन को प्रणाम ! हरदिल को खुश कर देने वाले- उस चंदन को प्रणाम !
-डा-ए-डी-एन-सिंह