Saturday, January 3, 2009

‘‘ किन्नर गंधर्व देवताओं की बात नहीं, मानव से मानव का मुक्त मिलन चाहिए’’-



पक्तियों को निरंतर स्मरण कराते रहने वाले व्यक्तित्व की अन्त-विहीन निद्रा ! जैसे मन स्वीकार नहीं कर पा रहा है। जिसके लिए अपना परिवार का माने मात्रा अपनी संतति नहीं अपितु ‘‘वसुध्वै कुटुम्बकम्‌’’ मंत्रा में आस्था रखकर ‘‘अपनो’’ को नये सिरे से परिभाषित करना था। आसमानी रंग की राजदूत मोटरसाईकिल, गोल रिंग वाला ‘हेड लाईट’- जैसे रामगोविन्द प्रसाद गुप्ता के लिए राणाप्रताप का ‘‘चेतक’’ हो। रोज नगर के चप्पे-चप्पे का भ्रमण और राज्य की राजधनी तक की साप्ताहिक यात्राा भी थकान का अनुभव नहीं होने देता था। परन्तु, कोई भी यात्राा व्यक्तिगत कारणों से नहीं बल्कि सामाज के विभिन्न लोगों की समस्याओं की कागजी पुलिंदा के साथ कुछ के आवास, कुछ के लिए दो जून की रोटी का जुगार तो कई होठों पर मुस्कान बिखेड़ने की कामना लिए होता था। रामगोविन्द बाबू बरगद की पेड़ की तरह थे जो स्वयं जेठ की तपती दोपहरी में ‘लू’ की जलन से झुलसता है परन्तु थके-हारे पथिक को शीतलता दे राहत प्रदान करता रहता है। किसी से ‘सेेसी’ नहीं- किसी की ‘सेक्यूरिटी’ नहीं-जनता जनार्दन की पीड़ा हरण की चिंता से रात की सन्नाटे को चीड़ती हुई उनकी मोटरसाईकिल की ‘टिपिकल’ आवाज-दूर से ही उनके आगमन की सूचना देती थी। दोनार चौक स्थित तिरहुतवाणी का छोटा सा कार्यालय- मानो उनका आवत-जावत विश्रामालय था। रोज घर से निकलकर, कुछ दूर पैदल चलकर तो कुछ दूरी मोटरसाईकिल से तय कर पहले दोनार में ठहराव पिफर गंतव्य की ओर प्रस्थान उनकी दिनचर्या थी। कहते है बड़ा होना बड़ी बात है परन्तु, बड़प्पन उससे भी बड़ी चीज है। अति साधरण व्यक्ति से भी सहजता से मिलना, उसकी समस्याओं को र्ध्यै पूर्वक सुनना एवं उसकी समाधन हेतु कोई कोर-कसर नहीं छोड़ना-गुप्ता जी का बड़प्पन ही तो था। मन के पन्नों पर अंकित इतनी सारी गुण गाथाओं की आपसी प्रतिस्पर्ध- पहले हम तो पहले हम की आपाधपी ने ही संस्मरण के म में उथल-पुथल मचा डाला है। संस्मरणों का मवार उल्लेख जैसे असंभव हो गया है। सभी एक से बढ़कर एक। इसे सजाने की जितनी भी चेष्टा करता हॅूं, उतना ही बिखड़ने लगता है। बस जस का तस छोड़ने की विवशता।रामगोविन्द बाबू पराग सौरभ से महमह करती उस पुष्प-वाटिका के प्रतीक थे, जहां मन कभी जूही तो कभी गुलाब हो जाता था, कभी कनैल तो कभी हरसिंगार की खुशबू से सुवासित हो जाता था। समाज के उस नंदन को प्रणाम ! हरदिल को खुश कर देने वाले- उस चंदन को प्रणाम !
-डा-ए-डी-एन-सिंह

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